स्व0 संजय उपाध्याय एक प्रगतिशील विचारधारा के कवि थे जिनके तीखे व्यंग्य की धार ने सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों को उजागर करते हुए समाज को आईना दिखाने का कार्य किया है।
उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के एक साधारण शिक्षक परिवार में 17 नवम्बर 1965 को जन्मे संजय उपाध्याय प्रारंभ से ही काफ़ी मेधावी और संघर्षशील व्यक्तित्व वाले थे। कॉमर्स के विद्यार्थी होने के बावजूद भी साहित्य की ओर उनका रुझान था। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में उनके भाषण को काफ़ी पसंद किया जाता था। 12वीं कक्षा में आगरा मंडल स्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिता में “धर्म पृथकतावादी तत्वों को बढ़ावा देता है” के पक्ष में बोलकर दूसरा स्थान प्राप्त किया था। उनकी पढ़ाई और जीवन-यापन हेतु परिवार पर किसी प्रकार का भार न पड़े, इसके लिए उन्होंने छोटे से छोटे कार्य करने में भी संकोच नहीं किया।
युवावस्था में उत्तर प्रदेश के अति पिछड़े और अपराध के लिए कुख्यात ज़िले एटा में एक समाचार पत्र प्रकाशित किया, स्वयं की प्रिंटिंग प्रेस पर कॉम्पोज़िटर, मशीनमैन और संपादक, तीनों काम उन्होंने बखूबी निभाये। यही नहीं, इसके साथ ही उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के संयोजक रवींद्र कुमार के साथ मिलकर काम किया और वहाँ एक राष्ट्रीय समाचार पत्र का संपादन किया। देश के ख्यातिप्राप्त पत्र – पत्रिकाओं में उनके व्यंग्यात्मक लेख और कविताएँ छापने शुरू हो गये और देश भर के कवि सम्मेलनों में वे कविता पाठ के लिए निमंत्रित होने लगे। उनकी वार्ताएँ ‘आकाशवाणी’ और ‘दूरदर्शन’ पर प्रसारित की जाती रहीं।
समाज की कुरीतिओं पर भाषण से शुरुआत करने वाले संजय उपाध्याय अब शांत रहकर सामाजिक कुरीतिओं, विद्रूपताओं पर अपनी कलम चलाने लगे और उनके के बारे में देश भर के जाने-माने समीक्षकों का कहना था कि उनका लेखन 90 के दशक में कम उम्र में काफ़ी संजीदा था और व्यंग्यविधा को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कर गया। समीक्षकों का कहना था कि अभिनव व्यंग्य कौशल से व्यवस्था विरोध, सामाजिक विद्रूपों पर कटाक्ष के पैने हथियारों से मुठभेड़ करने वाले संजय उपाध्याय ने आधा दर्जन से अधिक प्रकाशित कृतियाँ समाज को सौंपी हैं, जिनकी उपादेयता दूरगामी व्यंग्यप्रधान साहित्य के लिए बेहद प्रासंगिक लगती है।
‘संसद में घोंसले’, ‘कुत्ता अनुपात आदमी’, ‘वो लकी लड़की’, ‘नष्ट नर’, ‘दबोचिया’, ‘खुरदरे धरातल पर व्यंग्य यात्रा’, आदि प्रकाशित पुस्तकीय संग्रह साहित्य जगत की धरोहर हैं, जिन्हें कदम-कदम पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में और अनुभूत करने वाले जनजीवन में व्यवस्थाजन्य एवं सामाजिक विसंगतियों के बीच शिद्दत से समझा जा सकता है। इन प्रकाशित कृतियों पर देश के अनेकों प्रतिष्ठित समालोचकों एवं समीक्षकों की टिप्पणियाँ एवं विशद विवेचन हैं।
संजय अपनी साहित्यिक यात्रा में एक नया प्रयोग करना चाहते थे, जिसकी तैयारी भी पूरी कर चुके थे। देश भर के विद्वानों एवं साहित्यकारों की समीक्षाओं का एक संकलन “सामाजिक कटाक्ष के कारीगर” प्रकाशित करना चाहते थे लेकिन उनका यह संकल्प उस समय अधूरा रह गया जब 20 जनवरी 2021 को अचानक हृदयघात होने से उनका निधन हो गया और एक व्यंग्यविधा की दुनिया में उनका जाना एक ख़ाली स्थान छोड़ गया जिसे भर पाना इतना आसान नहीं दिखता। उनके लेखन के संकलन को दुनिया तक पहुँचाने का यह वेबसाइट एक प्रयास है।